फिर एक सवाल ? -धीरेन्द्र श्रीवास्तव
कब तक हम अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिये "कायस्थ" समाज के एकता व विकास के हितो को आघात पहुचाते रहेंगे?
क्या हम अपने संगोष्ठी प्रकृति के अथवा जनपद स्तरीय कार्यक्रमों को राष्ट्रीय/ अखिल भारतीय नाम देकर अपने समाज का उपहास नही करते है?
राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व के नाम पर दूसरे जनपदों से आये चन्द लोग जो स्वयं किसी के दबाव अथवा पिकनिक के उद्देश्य से आये होते है और जिनका उद्देश्य प्राय: इस तलाश के साथ पूर्ण होता है कि रुकने की क्या व्यवस्था है?खाने की क्या व्यवस्था है? घूमने के लिये स्थान व साधन क्या है? इत्यादि-इत्यादि।
ऐसे प्रतिनिधि जो दूसरे जनपदों से आगन्तुक होते है का उद्देश्यों से सीधा सम्बन्ध न होने व आयोजक के लगभग अकेले पडने व भीड के एकत्र होने को स्वयं की प्रतिष्ठा से जोडने के कारण उद्भव होता है महज रस्मादायगी व बिरादरी की अनुपस्थिति की पूर्ति गैर बिरादरी से करने का प्रयास ।और अन्तिम परिणाम टाँय-टाँय फिस्स ।
सम्भवत: इन्ही परिणामो को जो पूर्व मे भी प्राय: हुये है को लगता है, निकटभविष्य मे फिर से दुहराया जाने वाला है।
बिहार के तीन कायस्थ सम्मेलनों के पश्च परिणामो से लगता है कि कुछ लोग सबक सीखना ही नही चाहते है जो अपने आप मे अच्छे उदाहरण है ।सम्मेलनो मे एकत्र निरुद्देश्य भीड जातिवाद के इस दौर मे भी अपने समाज के प्रत्याशियों को जिताने के लिये प्रयास करने मे विफल रही।
हमे यह तथ्य ध्यान मे रखना होगा कि उत्तर प्रदेश का वातावरण बिहार से ज्यादा जातिवादी है जिसका मुकाबला "कायस्थ समाज"जिसका अभी तक जातिवाद पर विश्वास नही रहा है बगैर अपने समाज के सक्रिय लोगो,संस्थाओं व आम कायस्थो को विश्वास मे लिये एवम प्रणालीबद्ध तैयारी किये कभी नही कर सकता है।
यह बात और है कि सावधानी व आवश्यक तैयारी किये बिना कराये आयोजन के आयोजक/संयोजक/संचालक
अगले पन्द्रह -बीस दिनो तक विभिन्न समाचार पत्रों की कटिंग्स व फोटोग्राफ्स को घूम-घूम कर लोगो को दिखाते रहेंगे।
यह बात और है कि वैचारिकता के अभाव मे किये गये निरुद्देश्य कार्यक्रम का संग्यान कोई भी विशेषतौर पर अन्य समाज लेगा ही नही।
अभी भी समय है।धीरेन्द्र श्रीवास्तव