
उस वक्त के कायस्थ विचारकों ने इस घटना को एक सबक के रूप में लिया और अपने समाज को और अधिक समृद्ध, शिक्षित एवं सुदृढ़ करने के उद्देश्य से दो मुख्य कदम उठाये. पहला कायस्थ पाठशाला की स्थापना तथा दूसरा कायस्थों के संगठन की स्थापना. जो भारत में पहली जातीय संगठन होने का गौरव प्राप्त किया. उस समय कांग्रेस नाम की राजनितिक संगठन का भी गठन हुआ था जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष दादा भाई नौरोजी ने इस संगठन की सराहना की थी एवं अपना सहयोग देने की प्रतिबद्धता जताई थी. यही संगठन आगे चलकर अखिल भारतीय कायस्थ महासभा के नाम से 1981 में सोसाइटी एक्ट 1860 के अंतर्गत निबंधित हुई. जिसके पहले अध्यक्ष स्व. ब्रजेश्वर सहाय उर्फ़ स्वामी हंसानंद सरस्वती हुए. संगठन शुरुआत से ही कायस्थ समाज को आवश्यक दिशा देने में अंशतः विफल रही, जिससे सामाजिक एकता एवं अनुशासन में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ.समाज सुधार, कुरीतियों पर अंकुश, समय के अनुसार सामाजिक निर्देश जैसे आवश्यक विन्दुओं पर कार्य नहीं होने के कारण उपजातियों में बढती दूरी कम नहीं की जा सकी. शादी-व्याह की समस्याएं जटिल होती गई एवं दहेज़ एक समस्या बन गई. जातीय गौरव एवं संस्कारों में गिरावट स्पष्ट दिखती है, जो कायस्थपना को नष्ट कर चुका है. मजबूत संगठन के अभाव में कायस्थ धीरे-धीरे निचे की ओर फिसलती रही. अपना सम्मान बचने की कवायद में संगठन के प्रति उदासीनता बढ़ने लगी जो अंततः विकराल रूप धारण कर लिया. आज भी कायस्थ संगठन से जुड़ने में कतराता है एवं निरपेक्ष रहना ज्यादा उचित समझता है. कुछ विचारक इसे कायास्त्थों का इगो करार देते हैं पर वस्तुतः ऐसा है नहीं. अगर संगठन जनोपयोगी एवं अच्छा काम नहीं कर रहा तो लोग इसमे समय बर्बाद क्यों करेंगे. इसी खालीपन का फायदा उठाकर कुछ लोग संगठन को कामधेनु ही बना दिया. संगठन अपने उद्देश्य मार्ग से भटकते हुए मंद गति से अनुशासन बद्ध सामाजिक नेताओं के संरक्षण, समर्पण एवं परिश्रम से चलती रही. अनुशासन बद्ध इसलिए कह रहा हूँ कि उस वक्त संगठन में शिथिलता तो थी पर बेईमानी नहीं थी. शिथिलता की वजह से समाज की बढती अपेक्षाओं को पूरा करने में उनकी गति, ताल-मेल नहीं बना पा रही थी. अतः संगठन को एक गति की अपेक्षा थी. बीसवीं शताब्दी के अंत आते-आते संगठन में भारतीय राजनीति के अनुभव से संपन्न निवर्तमान राज्य सभा सांसद का पदार्पण हुआ. राजनीति के माहिर खिलाड़ी पूर्व सांसद महोदय ने अपने वाकपटुता एवं राजनितिक कौशल से महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद प्राप्त कर लिया एवं धीरे-धीरे अपने विरोधियों को बाहर का रास्ता दिखाते रहे.21 वीं सदी के शुरू होते ही संगठन को अधिक लोकतान्त्रिक बनाने के नाम पर निबंधित नियमावली में अपने मनोनुकूल परिवर्तन कर तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष महोदय द्वारा अपने मनोनुकूल पदाधिकारियों का चयन सुनिश्चित किया जाने लगा. संगठन को राजनितिक पैटर्न पर सभी हिंदी प्रदेशों सहित उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे गैर हिंदी प्रदेशों में भी विस्तार देते हुए जिला इकाईयों तक फैलाया. संगठन के विस्तार से जहाँ कायस्थ समाज में एक नयी आशा का संचार हुआ वहीँ राष्ट्रीय अध्यक्ष की लोकप्रियता एवं सम्मान में भी आशातीत वृद्धि हुई. संगठन के सदस्य बनने एवं इसके कार्यों में हिस्सा लेने के लिए लोग आगे आने लगे.
यहीं से शुरू हुआ कायस्थों का दोहन. कायस्थ तन-मन-धन से सहयोग दे रहे थे. कुछ महत्वाकांक्षी योजनाएं भी बनी जिसमे “पाप पुण्य का लेखा-जोखा”, प्रेरणा भवन का निर्माण, था. इसके लिए एक अलग ट्रस्ट का निर्माण कर धन इकठ्ठा किये गए और बताया गया की धारावाहिक के निर्माण से होने वाले आय का लाभांश ट्रस्टियों में बांटा जाएगा. पर उसका हिसाब-किताब आज तक अधर में है. अभी कुछ दिनों पहले शोर मचानेवाले ट्रस्टियों में लाभांश बांटे जाने की सूचना है. जो कल तक घाटा बताया जा रहा था, एकाएक लाभांश बांटने लगा.इसी तरह दिल्ली की भूखंड पर प्रेरणा भवन के निर्माण के नाम पर लाखों-करोड़ों बटोरे गए राशी का भी कोई अता-पता नहीं. कायस्थ पत्रिका का आय-व्यय कायस्थ निर्देशिका जैसे कई योजनाओं का आय व्यय जनता को नहीं दी गई. इन सारे तथ्यों से विवाद गहरा गया. शायद यही कारण है कि महासभा की बागडोर अनैतिक एवं गैरकानूनी ढंग से भी थामे रखने की कवायद तेज है. पदाधिकारियों का यह समूह अब एक गिरोह की शक्ल ले चुका है जहाँ सभी लोग सच्चाई छुपाने एवं अपने-अपने दामन बचाने के लिए एकजुट और प्रयत्नशील है. पदलोलुपता किसी सूरत में सराहनीय एवं समाज सेवा नहीं हो सकती. यह सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ कहा जायगा.
अबतक कायस्थ समाज भी सबकुछ समझ चुका है. पूरा ग्रुप संदेह के घेरे में है. समाज सेवा की आड़ में निजसेवा मे लगे लोग समाज से गहरा छल किया है. पर मुसीबत यह कि कोई भी कायस्थ मुखर रूप से विरोध नहीं कर रहा. उसके कई कारण हो सकते हैं, जिसमे एक कारण कायस्थों को रोजगार पाने, पा गए तो संभाले रखने और आवश्यकतानुरूप भरण-पोषण के लिए जद्दो-जहद है.इसलिए मै कहता हूँ कि जो समाज गलत बातों के विरोध का साहस भी न जुटा पाए, वह समाज विकसित, ताकतवर, आदर्श एवं एकजुट हो भी कैसे सकता है? यह संगठन के लिए और कायस्थ समाज दोनों के लिए संक्रमण काल ही कहा जायगा, जहाँ कायस्थों पर दोहरी मार पड रही है. कायस्थ समाज अपने शीर्ष संगठन के शीर्ष पद पर एक राजनितिक व्यक्ति को बिठाकर अंजाम देख लिया है. अब आगे इसे न दुहराए तो शायद कुछ सुधार हो जाय.
