राजनीति में एक दिशा एक लक्ष्य होती है; पर सामाजिक संस्थाएं सबको साधने के चक्कर में दिशा विहीन एवं लक्ष्य विहीन हो जाती है. समाज को हर वक्त कड़ी प्रतिबद्धता वाले पदाधिकारी की जरुरत रही है. जब-जब सामाजिक संस्थाओं को कोई प्रतिबद्ध पदाधिकारी मिला है, संगठन जनोपयोगी एवं सुदृढ़ रही है.वर्तमान में समाजिक संगठनो की तादाद बेशुमार है एवं समस्याएं उससे भी ज्यादा है. हमारे समाज की सबसे बड़ी विडम्बना है कि कोई बिना संस्था के संस्था है तो कोई संस्था के प्रोपराईटर हैं. हर कायस्थ भी अपने आप में प्रोपराईटर है. अब प्रोपराईटरों के टकराव से कैसे कुछ हासिल हो सकता है? समाज में कुछ फ्रीलांसर हैं, जिनका कार्य सिर्फ कमेन्ट करना होता है. सामाजिक कार्यों में कोई रूचि या सहयोग नहीं. हाँ यह भी सत्य है कि संगठनो में अक्षम पदाधिकारियों की संख्या ज्यादा है, अगर वे शीर्ष पदों पर हैं तो उनकी अदूरदृष्टि, कर्तव्य विमुख आचरण एवं अकुशलता के कारण संगठन अपना लक्ष्य निर्धारित ही नहीं कर पाता. और अगर वे निचले पदों पर हैं तो संगठन को कार्यशील रखना ही कठिन हो जाता है. इसी बिंदु पर सुधार की पहली जरुरत है, यह असंभव दिखता है, पर असाध्य नहीं. “हिम्मते मरदे, मददे खुदा”
आज एक बीमारी यह भी है कि सभी छोटी-बड़ी सामाजिक संस्थाएं, सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक कद रखने वाले भाई को अपने संस्था के संरक्षक या प्रमुख बनाना चाहते हैं या बना लेते हैं, जिनका उपयोग वे अपने को स्थापित करने तथा ताकतवर दिखाने में करते हैं. वहीँ संरक्षक बने हमारे भाई भी यदा-कदा आर्थिक मदद कर उन्हें संपुष्ट करते हैं, जिसका फायदा समाज को न होकर गुटबाजी को मिलता है. दूसरा सुधार इस बिंदु पर करना होगा. एक अन्य तथ्य यह भी है कि सम्मानित लोगों की उपेक्षा अथवा चरित्र हनन सामाजिक संस्थाओं में जबतक होती रहेगी, कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति समाजिक संगठन का अंग नहीं हो सकता. फिर विकल्प क्या है? निश्चित रूप से उनका स्थान अकुशल लोग ही लेंगे.सामान्यतः देखा जा रहा कि बिना संगठन से जुड़े या कार्य किये हमारे कुछ भाई मदद की आस में संगठनों के पास आते हैं. और मनोनुकूल सहायता न मिलने पर संगठन को बुरा-भला कहने लगते हैं और कुप्रचारित करते हैं. उनकी आवश्यकता एवं विवशता को समझा जा सकता है. उन्हें मदद भी मिलनी चाहिए पर उनका भी कर्तव्य है कि वे संगठन के मजबूती के लिए काम करें. संगठन की सार्थकता भी यही है कि उनका मदद के लिए आगे आयें न कि सस्ती लोकप्रियता के लिय मदद का सार्वजनिक आश्वासन देने के बाद अपना कर्तव्य ही भूल जाएँ. मै निजी तौर पर एक ठगी मानता हूँ.
पद लोलुपता अपने समाज में चरम पर है. समाज में पद की भूख स्पष्ट दिख रहा है, पद के अनुरूप कार्य तो दूर, जोड़-तोड़ एवं उस पर फेविकोल जोड़ की तरह जीवन पर्यंत बने रहने की उत्कंठा में लगे रहना सामाजिक नेताओं का लक्ष्य हो गया है.हमारे कुछ सामाजिक नेताओं में औरंगजेबी प्रवृति भी घर कर गई है, जिनकी नजरें शीर्ष पद की ओर लगी रहती है. और मौका मिलते ही सत्ता पलट या विघटन के वाहक बन जाते हैं. वर्तमान समय का यह बहुत बड़ा विशवास का संकट है. ऐसे नेता की सारी कोशिश अपने प्रतिद्वंदी को नीचा दिखाने और उन्हें बाहर रखने की ही होती है जिससे संगठन असरहीन हो रहा है. सामाजिक पद सोच-समझकर देने की जरुरत है तथा वही इसके पात्र हो सकते हैं जिन्हें संगठन की समझ है एवं समाज सेवा में अदम्य रूचि हो.
आप कुछ करना नहीं, कुछ बनना चाहते हैं. समाज कुटिलता से नहीं, सहजता एवं सरलता से ही एकजुट हो सकती है. गलत को गलत कहने का सामर्थ्य पैदा करना होगा. सही की पहचान अगर आप में नहीं है तो चाहे आप अपने को जितना सशक्त, समाज सेवी, संगठनो के प्रमुख या संरक्षक बन जाएँ, समाज का भला नहीं हो सकता.आज जितने भी तथाकथित राष्ट्रीय रैली, सम्मलेन, मिलन समारोह आयोजित हो रहे हैं, उसका निहितार्थ सिर्फ अपने को स्थापित करने की कवायद से ज्यादा कुछ भी नहीं. इससे आम कायस्थ कितना लाभान्वित हो रहा है, यह विचारनिए है. सभी आयोजन राष्ट्रीय कहलाने लगे हैं जबकि ऐसा होता नहीं. इससे लोगों में निराशा एवं हतासा बढ़ रही है एवं संगठन से मोह भंग होता जा रहा है, जिसका बुरा असर समाज पर एवं सभी संगठनो पर पड रहा है. महथा ब्रज भूषण सिन्हा, झारखण्ड
Sinhajee ke batho s samhath nahe hue.jab se Sinhajee n ABKM k Pradesh Adaksh s istifa dia hai hatasha k sikar hogaye hai.