दंभ और पाखण्ड का करना होगा अंत : महथा ब्रज भूषण सिन्हा
बडौदा बैठक की असंगत कार्यों से असहज प्रबुद्ध समाज सकते में है. उच्च न्यायलय के “स्टेटस को” पर चल रहे गुट की निरंकुशता ने समाज को अपने ठोकर पर रख अपशब्दों को अपना मन्त्र बना लेने के बाद प्रबुद्ध वर्ग अब आंदोलित है. दरअसल महासभा के उद्देश्य, कार्य, नीतियों एवं सामाजिक ताने-बाने से अनभिज्ञ व्यक्तियों ने इसका इस्तेमाल अपने महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए ही विघटित किया था. यह गुट क़ानून की पेचीदगियों में फंसा कर महासभा का भरपूर दोहन करना शुरू कर दिया है. जिससे समाज के कान खड़े हो गए हैं.
यों तो इस संगठन का शोषण अनेक वर्षों से होता आ रहा है जिसने कई विकृतियों को जन्म दिया. मुख्यरूप से कहा जाए तो उसमे कच्चे-पक्के संगठनों का बढ़ता जाल, आपसी विश्वास की कमी, सामाजिक साधनों का दुरुपयोग. आर्थिक दुरुपयोग, कायस्थ समाज का सांस्कृतिक पतन और उपेक्षा जैसे कई सामाजिक रोग घर कर गया. राजनितिक रूप से पिछड़ता समाज अपनी सामाजिक शक्ति भी खोता चला गया है.
उन्नीसवीं सदी के अंत आते-आते संगठन में पदलोलुपता एवं आर्थिक दोहन परवान चढने लगी और दिनोदिन यह परिपाटी मजबूत होती चली गई, जो आज इस मुकाम पर पहुँच गया कि योग्यता की जगह उन्माद एवं कार्य के जगह बैठक, माला एवं मंच पर टिक गई. कायस्थ समाज की अगुआई करने की ललक में लोगों ने अभद्रता को हथियार बना लिया है.
वर्तमान स्थिति में ऐसे सभी पदाधिकारियों को स्वेच्छा से पद छोड़ देना चाहिए, जिनकी वजह से कायस्थ संगठन के औचित्य के साथ-साथ कायस्थ समाज के ऊपर आंच आ रही है. इससे उनकी मर्यादा तो कम से कम बची रहेगी तथा सुधार के मार्ग प्रशस्त होंगे.
देर से ही सही अब समाज आंदोलित हो रहा है तो सुधार की आशा दिख रही है. और यह सच भी है कि पतन जब तक निचले पायदान तक न पहुँच जाय, सुधार की सीढियाँ दिखेगी ही नहीं. ऐसे अतिरेकों को समाज से निकाल फेंकना होगा जो हमारी अधोपतन के कारण बन रहे हैं. इसके लिए जरुरी है कि प्रबुद्ध वर्ग अपनी चुप्पी तोड़े. यह भी उतना ही आवश्यक है जितना अपने संतान को प्रगति एवं समृद्धि के राह को प्रशस्त करना. समाज हमारी आत्मा है इसे मारकर सुखी नहीं रहा जा सकता.
महथा ब्रज भूषण सिन्हा.
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