पूनम सिन्हा से निबटने के लिए राजनाथ सिंह ने लखनऊ में कायस्थ संगठनों की बैठको में एक ही बात दोहराई की वो जाती की राजनीति नहीं कर रहे है -अश्वनी श्रीवास्तव
पिछले चार-पांच दिनों के लखनऊ के अखबार पढ़कर पता चल रहा है कि यहां राजनाथ सिंह अपनी सांसदी बचाने के लिए दिन रात एक किये हुए हैं। अपने सामने बड़ा खतरा बन चुकीं सपा बसपा गठदबंधन उम्मीदवार पूनम सिन्हा से निपटने के लिए राजनाथ सिंह ने इस बीच में कायस्थ संगठनों की कई बैठकों में शिरकत की है। आज अभी जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ, तब भी शायद वह कायस्थ संगठन के ही किसी बड़े कार्यक्रम में इंदिरा नगर में मौजूद हैं। मजे की बात यह है कि वह इन कार्यक्रमों में शिरकत करके एक ही बात बार बार दोहरा रहे हैं कि वह जाति धर्म की राजनीति नहीं करते।
पता नहीं वहां मौजूद कायस्थ समाज के लोग राजनाथ सिंह के इस भीषण चुटकुले पर अपनी हंसी कैसे रोक पाए होंगे क्योंकि धर्म की राजनीति करने के लिए भाजपा का जन्म हुआ और खुद राजनाथ सिंह 1991 में भाजपा सरकार पहली बार आने के बाद से ही लगातार खुद को भाजपा का सबसे बड़ा क्षत्रिय नेता घोषित कर कर के प्रफुल्लित होते रहे हैं। राजनाथ सिंह ने अपने इर्द गिर्द ठाकुरों का जमावडा इस कदर बनाये रखा कि चाहे वह सत्ता में बतौर मंत्री या मुख्यमंत्री रहे हों या विपक्ष में राजनीति करने वाले नेता, फायदा पहुंचाने के लिए ठाकुर ही उनकी पहली पसंद रहे हैं।
बहरहाल, इन कार्यक्रमों में जातिवाद से दूर रहकर राष्ट्रवाद करने और मानने की घुट्टी कायस्थों को पिलाकर वह दोबारा सत्ता में आना चाहते हैं ताकि खुद को क्षत्रिय सत्ता का सिंबल बनाकर वह देशभर के ठाकुरों का रहनुमा बन सकें।
हालांकि इस बार उनकी संसदीय सीट लखनऊ के चार लाख से ज्यादा कायस्थ मतदाता उनके झांसे में आते नहीं दिख रहे हैं इसलिए राजनाथ सिंह पहली बार चुनाव से पहले इस कदर ताबड़तोड़ तरीके से कायस्थ संगठनों के नेताओं से मेल जोल बढ़ा रहे हैं। पूनम सिन्हा ने तो चुनाव प्रचार के पहले ही दिन से कायस्थ और मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपनी आक्रामक रणनीति के साथ बहुत ही गहरी पैठ बना ली है। राजनाथ न सिर्फ इस मामले में कुछ देर से जागे बल्कि उनकी ठाकुर नेता वाली छवि ने भाजपा के परंपरागत मतदाता रहे कायस्थ समाज को उनसे दूर कर दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने सौम्य व्यवहार और लखनऊ के कायस्थ मतदाताओं से सीधा संपर्क बनाकर सदैव उनका दिल जीते रखा। यही नहीं , उन्होंने भाजपा के प्रदेश और स्थानीय संगठन व सरकार में भी कायस्थ नेताओं को मजबूती से आगे लाकर खुद को कायस्थों का एकछत्र नेता बनाये रखा था।
लेकिन राजनाथ सिंह की अकड़, कायस्थों के वोट से ही जीतने के बावजूद पिछले पांच साल तक लगातार राजनीति और सत्ता में कायस्थों की उपेक्षा आदि कारणों से कायस्थ मतदाता राजनाथ सिंह को अपना नेता उस तरह से नहीं मान पाए, जैसा कि वे अटल को मानते आए थे। अटल के बाद उपजे लखनऊ के इसी राजनीतिक वैक्यूम का फायदा उठाकर पूनम सिन्हा ने चुनाव प्रचार शुरू होते ही कायस्थ मतदाताओं और संगठन के नेताओं को अपने पाले में कर लिया है।
फिलहाल तो लखनऊ का राजनीतिक माहौल यह बनता साफ दिख रहा है कि अच्छी खासी तादाद में कायस्थ मतदाता इस बार पूनम सिन्हा को ही वोट करने का मन बना चुका है। इसी तरह लखनऊ में कायस्थों की ही तरह की राजनीतिक ताकत रखने वाला मुस्लिम मतदाता वर्ग, उनके साथ सपा बसपा का वोट बैंक समझा जाने वाला पिछड़ा और दलित मतदाता, सिंधी मतदाता भी पूनम सिन्हा की तरफ ही ज्यादातर लामबंद हो रहा है।
कुल मिलाकर यह कि लखनऊ में टक्कर इस बार बहुत रोमांचक है... और शायद यहां का मतदाता इतिहास रचने का मन बना भी चुका है। अगर भाजपा की आईटी सेल के टिड्डी दल की गाली गलौच या मोदी मोदी की उस धमाचौकड़ी को पैमाना न मान जाए , जो वह हर भाजपा या मोदी विरोधी पोस्ट पर इन दिनों मचा रहे हैं तो साफ दिख रहा है कि बहुत ही खामोशी से भाजपा की 28 साल से चली आ रही सीट को विपक्ष ने अपनी राजनीतिक गोटियां बिछाकर उससे छीन लिया है
अश्वनी कुमार श्रीवास्तव
लेख में दिए विचार लेखक के है, कायस्थ खबर का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है