सामाजिक पत्थरबाजी में ज़रूरी है मौन का कवच – कवि स्वप्निल
"इन हवाओं में इक उमस है,और हाथों में पत्थर भी।
ये तस्वीर उस दुनिया की,हैं जिसे हम सँवारने निकले।।"
जब जब पत्थर बाजी की बात आती है, तब तब हमारे जेहन में स्वर्ग से सुंदर घाटी को नर्क की प्रताड़ना देने वाले अलगाववादियों की तस्वीरें खिंच जाती हैं।
परन्तु आज ना घाटी की बात करूँगा और ना ही शरीर को चोट पहुँचाने वाले पत्थरों की।
आज तो बात उन पत्थरों की होगी जो दीखते तो नही हैं परंतु चोट जरूर पहुँचा जाते हैं।
घबराइए नही ये ना तो रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कोई कहानी है और ना ही प्रवाल रमन द्वारा निर्देशित तुषार अभिनीत "गायब"।
हाँ परन्तु गायब शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। मै भी कुछ दिनों हेतु गायब ही तो हो गया था।
चोट खाकर ह्रदय,
कुछ यूँ रोने लगा।
मौन होकर हमने,
फिर संभाला उसे।।
आईये पुनः लौटते हैं उन ना दिखने वाले पत्थरों पर।
जी हां ये ना दिखने वाले पत्थर सीधे ह्रदय पर घात करते हैं।
कब कहाँ किधर और किसके द्वारा चलेंगे आप अनुमान भी नही लगा सकते।
कभी व्हाट्सप्प तो कभी फेसबुक के हैण्डल का इस्तेमाल करते हुए चलाये जाने वाले ये पत्थर कई प्रकार के होते हैं।
कभी पोस्ट के रूप में बड़े वाले पत्थर,तो कभी टिप्पणी के रूप में छोटे छोटे।
पर मार दोनों बराबर की करते हैं।
इन पत्थरों का कोई चरित्र नही होता।
अरे आप गलत ना समझें। मेरा मतलब कोई आकार नही कोई प्रकार नही और कोई निश्चित भार नही होता। परन्तु हाँ ये आपका चरित्र बिगाड़ने की क्षमता बखूबी रखते हैं।
वैसे इनसे बचने का एक तरीका भी है। मौन का हेलमेट पहन लेना।
इन पत्थरों की मार से आहत होकर जब कुछ दिनों हेतु मौन हुआ तो एक और तथ्य भली भांति समझ सका की हम चाहकर भी इन पत्थरबाजों का कुछ नही बिगाड़ सकते क्योंकि पत्थरबाज कभी किसी का शरीर धारण कर लेता है तो कभी किसी का।
तभी तो हालिया दिनों में मुझपर सबसे ज्यादा पत्थर उन्ही लोगों ने चलाये जिन्हें 2 वर्ष पूर्व से बड़ा भाई कहकर सम्बोधित करता रहा हूँ।
खैर छोड़िये शुक्र है अब पत्थर नही चल रहे। मौसम भी खुशनुमा सा है। काश ये अमन यूँ ही बना रहे।
ना पत्थरों का शोर है ना,
खुद को आजमाने का जोर।
लगता है , अमनोसुखन,
की बात समझ आने लगी।।
-कवि स्वप्निल