

स्वतंत्रता दिवस पर स्वतंत्र विचार : हमारी कौम सहायता करने के लायक भी नहीं है – महथा ब्रज भूषण सिन्हा
कहाँ से शुरू करूँ? ठीक है, घर से ही शुरू करता हूँ. चार भाई. बड़े होते गए और जगह बदलती गई. तीसरा मैं हूँ अतः अपने दोनों बड़े भाईयों के पास आता जाता रहा. डांट खाया तो एकता खंडित और पेंडें मिले तो भैया के कदमो में स्वर्ग. मैं भी बड़ा हो गया और अपने छोटे के लिए वही रवैया. अब तो इतने दूर-दूर की झगड़ने के लिए भी तरसते रहते. एकता तो अब सिर्फ किसी पारिवारिक आयोजन की मुहताज हो गई.
घर से निकलते ही पड़ोस से सामना हुआ. पाण्डेय जी नमस्कार, मंडल जी कैसे हैं आप? श्रीवास्तव जी तो अपने ही हैं, उन्हें क्या पूछना सिर्फ मुस्कुराकर ही तसल्ली कर ली. साहू जी घर का कूड़ा नाली में ही डाल देते हैं. उनको टोका तो बोले मेरा कूड़ा भी आप ही फेंक दिया करें. केवल बोलना ही आता है. अरे समझते भी नहीं. आजकल बरसात का दिन है, शाम को पानी बरसेगी और कूड़ा बह जाएगा. हुंह? बड़ी समस्या है लाल साहब की गाडी से. मोड़ पर ही खड़ी किये रहते हैं. कल लाल साहब को कहा था – गाडी थोड़ी आगे लगाया करें. बिफर उठे. आपलोगों को तो मेरी गाडी से जलन है. मैं क्या बेवकूफ हैं जो गाडी यहाँ खड़ी करते हैं? जाईये, अपना काम करिए. तकलीफ है तो बगल वाली गली से निकलिए. पत्नी बोली- आप समाज सुधार मत करिए. उस दिन लाल साहब ने ही हॉस्पिटल पहुंचाया था. हाँ सत्य ही है. किसी न किसी कारण से सब, सबकहीं चुप ही रहते हैं.पड़ोस से निकलते ही वर्मा जी मिल गए. कैसे हैं महथा जी? रविवार को बैठक है आईयेगा जरुर. शहर में हमारी इतनी बड़ी आबादी है चुनाव आ रहे हैं हमें एकताबद्ध हो कुछ करना होगा. बैठक में जोश- खरोश से बोले नेता. किसी ने आवाज लगाई- मेरी बेटी की शादी कैसे होगी? लडके दूसरी जाति में शादी कर रहे हैं. बोलती बंद ! वक्ता भी अपने लडके की शादी अन्य जाति में कर चुके थे. समाज को दिशा दिखा रहे खुद दिशाहीन हो गए. एक ने आवाज लगाई – मेरा बेटा 35 साल का हो गया- लड़की नहीं मिल रही. फिर एक ने कहा- मेरी जमीने दखल कर रहे लोग. मदद नहीं मिल रही. बेरोजगार हैं मेरे बेटे. लोगों की अलग-अलग उम्मीदें. सामाजिक समस्याओं की भरमार. पर लम्बी चौड़ी दहाड़ें. एकता की बातें और दहाडो पर पानी फेरता लोगों निगाहें पाकशाला की ओर.बाहर आये. निकल पड़े अपने राजनितिक नेता भाईयों के घर तरफ. चुनाव जीतकर संसद की शोभा बन चुके नेता जी ने अपना ज्ञान दिया- कायस्थों के वोट से थोड़े न जीते हैं. अरे इनके भरोसे रहे तो कैरिअर ही चौपट हो जाए. क्या करना है इनके लिए? सहायता करो! सहायता करो!! हमारी कौम सहायता करने के लायक भी नहीं है. हंसते हुए बोले- कभी कोई बैठक-सम्मेलन करवाईयेगा तो खाने की व्यवस्था करवा देंगे. आश्वासन सुनकर मन संतुष्ट हो गया. सच ही कह रहे थे. बैठक- सम्मेलन अब खाने-खिलाने का मंच बन गया है. आज का स्वतन्त्र विचार सिर्फ इतना ही. कल से फिर वही गणतंत्र में रहना है. –महथा ब्रज भूषण सिन्हा.
(मैं भी लिख दूँ. इस घटना से किसी का कोई सम्बन्ध नहीं है.)
