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रविवार विशेष : वर्तमान सन्दर्भ पर महथा ब्रज भूषण सिन्हा की नजर- अखिल भारतीय कायस्थ महासभा के विवादों पर निष्पक्ष विश्लेषण , जानिये दोषी कौन ?

विगत कुछ दिनों से अखिल भारतीय कायस्थ महासभा के ऊपर जो चर्चाएँ चल रही है, उस सन्दर्भ में समाज के सभी बंधुओं को अवगत कराने के उद्देश्य से यह लिखा जा रहा है. समय- समय पर चर्चा में सभी अपने-अपने पक्ष को सही ठहरा रहे हैं, जो स्वाभाविक है. आप निष्पक्ष विश्लेषण करेंगे तभी सही-गलत का निष्कर्ष निकाल पायेंगे. पर अगर आप निष्पक्ष नहीं हैं तो हमारी बातें सिर के ऊपर से निकल जायेगी. पहले अदालती आदेश की बात: 14 नवम्बर 2014 के SDM के आदेशानुसार अखिल भारतीय कायस्थ महासभा को विधिक संचालन हेतु सब-रजिस्ट्रार को आदेशित करते हुए पारिया ग्रुप के नाम की संस्तुति की गई. जिसमे तीन बातें प्रमुख थी. पहला- श्री सारंग जी को अखिल भारतीय कायस्थ महासभा के विधिक उतराधिकारी होने को सिरे से नकार दिया. दूसरा- प्रस्तुत तथाकथित साक्ष्यों के आलोक में श्री एके श्रीवास्तव जी को पांच लाख के गबन का आरोपी बताया. तथा तीसरा- श्री एके श्रीवास्तव के नेतृत्व में कार्यकारी अध्यक्ष रह चुके डॉ आशीष पारिया एवं कार्यकारी महामंत्री रह चुके श्री विश्व विमोहन कुलश्रेष्ठ को क्रमशः राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में कार्य करने के लिए आदेशित किया. जिसे पारिया ग्रुप ने त्वरित गति से अपने नाम का निबंधन प्राप्त करते हुए कार्य शुरू कर दिया. उसी आनन-फानन में यह ग्रुप महासभा के पूर्व संविधान को दरकिनार करते हुए नया संविधान भी पंद्रह से बीस दिनों के अंदर निबंधित करवा लिया. इस बीच श्री एके श्रीवास्तव जी ने उच्च न्यायालय में वाद दायर कर किया. जिस पर तेईस फरवरी को उच्च न्यायालय ने “स्टेटस को(status quoe)” दिया. जिसका अर्थ है “यथास्थिति बनाए रखना” साधारणतः (status quoe) पेटिशनर के पक्ष को ही दिया जाता है. यानी SDM के आदेश से पहले की स्थिति बनाए रखना. पर आदेश की अस्पष्टता का लाभ पुनः पारिया गुट ले उड़ा और आज की स्थिति आपके सामने है. “यथास्थिति” का मतलब किसी भी संगठन के लिए सिर्फ रूटीन कार्य के लिए होता है. जिसमे सिर्फ लोक हितार्थ कार्य (कार्यालयीन कार्य) को संपादित करना होता है ताकि सामान्य लोग को उससे असुविधा का सामना नहीं करना पड़े. किसी भी तरह की नियुक्ति, मनोनयन, नए कार्य प्रारम्भ करना, सम्मलेन अथवा बाहरी बैठक गैरकानूनी है. अब गलतियों की बात: पहली गलती या दुर्भाग्य पूर्ण कार्य यह रहा कि आदेश के महीने भर के अंदर नए संविधान का पंजीकरण करा लेना, जो उस समय की परिस्थिति से मेल नहीं खाती. पूर्व संविधान को रद्द करने के लिए आम सभा का होना जरुरी होता है जिसमे देश भर के प्रतिनिधि का सहभागिता आवश्यक है. उसी तरह नए संविधान की रूप-रेखा आम सभा ही तय कर सकती है. उपरोक्त संविधान दोनों अहर्ताओं को पूरा नहीं करता. दूसरा नयी नियुक्ति अथवा मनोनयन 23 फरवरी के उच्च न्यायालय के आदेश की घोर अवमानना है. सुनने में यह भी आ रहा है कि लोगों को पिछली तारीख से नियुक्ति अथवा मनोनयन पत्र जारी की जा रही है. ऐसी परिस्थिति में मनोनयन पाना वाला एवं मनोनयन करने वाले क़ानून का मजाक बना रहे हैं जो दण्डनीय एवं संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आते हैं.
तीसरी समस्या कार्यकारिणी की बैठक सही ढंग से न होना. जीतनी भी खाना पूर्ती कर ली जाए, बनावटीपन कभी भी छुपता नहीं. अगर सामाजिक सेवा कार्य भी छद्म रूप से किया जाने लगेगा तो समाज की अधोगति निश्चित है. चाहे वह कोई करता हो. बड़ा कहलाने की महत्वाकांक्षा पाले हुए लोग को योग्य भी होना होगा. यह कोई मनेर का लड्डू नहीं है कि जो चाहा लुट लिया. याद रखिये ना आप किसी को अपने स्वार्थ का मोहरा बनाएं और न किसी का मोहरा बने.
    उपरोक्त बातों से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि लोग किस तरह पद लोलुप एवं अति महत्वकांक्षी हो गए हैं. आज की परिस्थिति में अपेक्षाकृत जीवन के उस मोड़ पर खड़े व्यक्ति, जिनके पास पारिवारिक जिम्मेदारियों का पहाड़ खड़ा हो और सही रूप से पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाने तक का वक्त नहीं होता, जब बीस-पच्चीस मिनट का समय किसी बैठक या कार्यक्रम में भाग लेने के लिए नहीं निकाल पाता तो कैसे दिन-रात सामाजिक उठक-बैठक में लगे हैं? यह एक शूल की तरह चुभने वाला प्रश्न है? आप खुद भी विचार कीजिये. सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि सामाजिक सेवार्थीयों की बाढ़ आ गई है. जो सिर्फ़ पद प्राप्त करने तक सिमित है. लेकिन कोई उस पद की मर्यादा ना तो समझता है और ना ही अहर्ता रखता है. यह पद लोलुपता समाज, देश दोनों के लिए घातक हैं. और इसके गंभीर परिणाम देखे भी जा रहे हैं.
अगर गुट की बात की जाय तो सभी ग्रुप जो अखिल भारतीय कायस्थ महासभा के ऊपर अपना दावा रखता हो, वे निजी स्तर पर ग्रुप बना कर कार्य कर सकते हैं पर अखिल भारतीय कायस्थ महासभा (निबंधन संख्या 5680/81) के बैनर का प्रयोग कोई भी नहीं कर सकता. यहाँ तक कि status quoe प्राप्त गुट भी किसी भी बाहरी कार्यक्रम के लिए नहीं कर सकता, जो कि किया जा रहा है जो निंद्निये ही नहीं गैरकानूनी भी है. यह बैनर सिर्फ अधिकृत कार्यालय पर ही status quoe के स्थिति तक लगा रह सकेगा. हाँ कोई प्रीफिक्स या सफिक्स जोड़कर प्रयोग करें तो समाज दिग्भ्रमित नहीं होगा और यह न्यायोचित हो सकता है.
अदालती लड़ाई में जीतने वाला पक्ष यदि चाहे तो इस अवधि में किये गए सभी कार्य को निरस्त तो करेगा ही, जिम्मेदार व्यक्तियों पर मुक़दमा कर उनसे इस अनैतिक कार्य से समाज को हुए नुक्सान की भरपाई का दावा भी ठोक सकता है. उपरोक्त तथ्य हम समाज में छिड़ी बहस, तर्क वितर्क पर सभी लोगों को ध्यान में लाने एवं व्यापक समाज के हितार्थ जानकारी हेतु दे रहे हैं. हमारी बातों से सहमत होना और न होना सबका अपना-अपना अधिकार है. हमारा न कोई चैलेन्ज है और ना ही कोई रोक. अपना बुरा-भला सोचने के लिए सब स्वतन्त्र हैं. अतः आखिरी बात यही है कि संगठन को हलके में न लें. आप पदाधिकारी सबकुछ सोच समझ कर बने. अगर पद के अनुरूप कार्य निर्वहन की क्षमता एवं कानूनी ज्ञान न हो तो किसी का मोहरा बनने से अच्छा है, आप उनके समर्थक बन कर काम चला लें. क़ानून किसी संस्था का निबंधन हवा मिठाई खाने के लिए नहीं करता, इसे याद रखने की जरुरत है. - महथा ब्रज भूषण सिन्हा ( भड़ास श्रेणी मे छपने वाले विचार लेखक के है और पूर्णत: निजी हैं , एवं कायस्थ खबर डॉट कॉम इसमें उल्‍लेखित बातों का न तो समर्थन करता है और न ही इसके पक्ष या विपक्ष में अपनी सहमति जाहिर करता है। इस लेख को लेकर अथवा इससे असहमति के विचारों का भी कायस्थ खबर डॉट कॉम स्‍वागत करता है । आप लेख पर अपनी प्रतिक्रिया  kayasthakhabar@gmail.com पर भेज सकते हैं।  या नीचे कमेन्ट बॉक्स मे दे सकते है ,ब्‍लॉग पोस्‍ट के साथ अपना संक्षिप्‍त परिचय और फोटो भी भेजें।)  

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