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अक्षय तृतीया पर सोना खरीदने का कोई नियम नहीं , बाज़ार की चाल : आनंद जौहरी

वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि जो अक्षय तृतीया के नाम से प्रख्यात है, अनादि काल से शुभ मुहर्तों में शुमार है। यह तिथि अपनी अद्वितीय आंतरिक क्षमता के लिये जानी और पहचानी जाती है। हमारे प्राचीन मनीषियों ने बहुत काल पहले ही इस तिथि की उस मूल प्रवृत्ति को पहचान लिया था जो नष्ट ना होने की अप्रतिम संभावनाओं से ओतप्रोत है। शायद इसीलिये वक़्त ने इसे "अक्षय" नाम से संबोधित किया। अक्षय यानी जो नष्ट ना हो। इस नश्वर जगत में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसका क्षय ना हो पर इस तिथि को अक्षय कहने के मूल में शायद कोई और ही मर्म समाहित है। अक्षय है तिथि
 इस तृतीया को अक्षय कहने के पीछे शायद इस तिथि की संरक्षक क्षमता को इसका आधार माना गया होगा। यानी इस तिथि में किये गये उपक्रम, क्रियाकलापों का आसानी से क्षय या ह्रास नहीं होता। पर हमारे ऋषियों नें इसे पदार्थों से ना जोड़कर विचारों से जोड़ा, मानसिक एवं आंतरिक क्षमता से जोड़ा, कर्मों से जोड़ा। उन्होंने इस तिथि में उन सभी क्रियाकलापों या अभ्यास को प्रश्रय दिया जो हमारे स्थूल, लिंग, सूक्ष्म और कारण जीवन में सफलता, आनंद, प्रेम और उत्साह के बीज भर दें। इन्हीं मूल्यों को जीवन में स्वर्ण का असली सूत्रपात माना गया। इसलिये इस दिन उपासना, ध्यान, जप-तप, होम-हवन और दान जैसे नवीन कर्मों का प्राकट्य हुआ।
समृद्धि के असली बीज दरअसल यही वो वास्तविक सूत्र हैं जो ह़मारे जीवन में आनंद के कारक हो सकते हैं. ऐश्वर्य की कामना के मार्ग का वरण करने से पहले हमें समझना होगा की हमारे सकारात्मक कर्म ही समृद्धि के असली बीज हैं। इन्हीं दरख़्तों पर सफलता, आनन्द, ऐश्वर्य और स्मृद्धि के पुष्‍प पल्लवित होतें हैं। शायद इसी वजह से हमें इस दिन सकारात्मक कर्मों को अपनाने के लिये प्रेरित किया गया, जिससे हमारे जीवन में सुख अक्षय होकर रह जाए क्योंकि शायद हमारे जीवन में हमारे सकारात्मक कर्म ही धन के असली सूत्र हैं। व्यापारियों की चाल पर कालान्तर में अज्ञानता वश हमने धन को स्वर्ण से और स्वर्ण को क्षणिक भौतिक उपक्रम से जोड़ दिया। विश्वास करें इस दिन का सोने की खरीददारी से कोई सीधा संबंध नहीं है। यह तो हमारे लोभ की मनोवृत्ति का एक लौकिक स्वरूप है जिसका इस्तेमाल कालान्तर में व्यापारियों ने स्वयं के लाभ के लिये इस्तेमाल किया। अन्यथा हमें अक्षय स्वर्ण का स्वप्न दिखाने वाले व्यापारी भला इस दिन अपनी तिजोरी से स्वर्ण को पलायन की अनुमति क्यों देते। हां, इन विचारों के चतुर प्रयोग से असली माया तो हमारे जेब से निकल कर उनकी तिजोरी में अवश्य चली जाती है और असली समृद्धि व्यापारियों के पास पहुंच जाती है। इन अज्ञानताओं ने ही हमारी अर्थव्यवस्था की रफ्तार को भी मंद किया और हमें भी पीछे रखा। कुछ मान्यताओं और थोड़े से अस्पष्ट उल्लेखों के अलावा प्राचीन ग्रंथों में इसका कोई वर्णन नहीं है। इसका उल्लेख सिर्फ नवीन ग्रंथों में ही मिलता है। विशेष ग्रह स्थिति में खरीदें सोना प्राचीन ज्योतिष में स्वर्ण खरीदने के लिये विशेष ग्रह स्थितियों का वर्णन है। सोने की खरीद बिक्री के लिये मंगल, शनि, बृहस्पति और शुक्र पर विशेष दृष्टि रखी जाती है। शनि जब जब बुध की राशि में चरण रखते हैं, तब तब सोने में भारी तेजी होती है और शनि जब जब मंगल की राशि में कदम रखते हैं, सोने का भाव गर्त में चला जाता है। इसका अक्षय तृतीया से कोई संबंध नहीं है। यानी यदि शनिदेव के बुध की राशि में प्रविष्ट होनें के पहले स्वर्ण का संग्रह कर लिया जाये तो सोने के मूल्यों में भारी वृद्धि का आनन्द लिया जा सकता है और यदि मंगल की राशि में जाने से पहले सोने को बेच दिया जाये तो नीचे के भाव में दोबारा उसे खरीद कर लाभ कमाया जा सकता है। इस समय शनि मंगल की राशि वृश्चिक में गतिशील हैं और यह काल स्वर्ण के संग्रह के लिये सर्वथा अनुपयुक्त है। दान धर्म का महत्व इसलिए इस दिन पर अज्ञानतावश अपनी लक्ष्मी को दूसरों के हाथों में सौंप देना बेहतर नहीं माना जा सकता। वहीं ज्यादातर लोग सोने के नाम पर जेवर ही खरीदते हैं जो सोने में अलॉय यानि अन्य धातुओं के मिश्रण से तैयार किया जाता है। यानी हमारे द्वारा खरीदा गया सोना भी शुद्ध रूप में हमारे पास नहीं आता। सोना खरीदने से ज़्यादा बेहतर असहायों की सहायता, दान के साथ जाप और उपासना है। इस दिन बिल्वपत्र, बिल्व फल, कमलगट्टे, धान का लावा, खीर, काला तिल, जीरा, धनिया, शक्कर, शहद, गाय का घृत व रसीले फलों की आहुति का ग्रंथों में विशिष्ट महत्व है। आनंद जौहरी आध्यात्मिक गुरु एवं ज्योतिषीय चिंतक (Source :NBT)

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