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“कायस्थ समाज के सम्मुख समस्याएं एवं चुनौतियां”-राकेश श्रीवास्तव

कुछ दशक पहले समाज में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति और गरिमामय पहचान के चलते कायस्थों को बहुत सम्मान के साथ देखा जाता था. मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है कि गांवों और कस्बों में जब भी कोई ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया या कोई अन्य जाति किसी गंभीर समस्या में उलझ जाती थी, तो गांव या कस्बे के कायस्थ के पास आकर उस समस्या से निकलने के लिए सलाह मांगा करती थी.विवाद या लड़ाई झगड़े की स्थिति में भी कायस्थों की भूमिका निर्णायक होती थी.
कायस्थों की बुद्धिमत्ता के चलते कोई भी जाति कायस्थों से टकराव मोल लेना मुनासिब नहीं समझती थी. कहने का आशय यह कि अपने विवेक और बुद्धिमत्ता के चलते कायस्थों ने समाज में अपनी पहचान विशिष्ट बनाई हुई थी.
समय और काल चक्र के परिवर्तन के दौर में जब भारतीय राजनीति में जातीय राजनीति का प्रादुर्भाव हुआ,तो कायस्थों की सामाजिक स्थिति और सम्मान के समीकरण में बहुत तेजी से बदलाव हुआ. इस बदलाव का दुष्परिणाम यह हुआ कि जो जातियाँ कायस्थों के सहयोग, सलाह और मार्ग दर्शन के बिना एक कदम भी आगे बढ़ाना मुनासिब नहीं समझती थीं,वे अपने सामने कायस्थों को हीन और दीन समझने लगीं. वजह स्पष्ट है कि जातीय राजनीति के समीकरण में अपनी संख्या और जातीय एकता के चलते ब्राह्मण, ठाकुर,बनियां, यादव जैसी अन्यान्य जातियां सत्ता के केंद्र बिंदु में आकर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से अत्यंत प्रभावशाली हो गईं, जब कि अपनी बुद्धि और विवेक के बल पर अन्य जातियों पर राज करने वाले कायस्थ जातीय चेतना और एकता के अभाव में समाज में फिसड्डी बन कर रह गए. जो जातियां कभी कायस्थों की सलाह पाने के लिए जी हजूरी करते नहीं थकती थीं, वही राजनीतिक और आर्थिक रूप से मजबूत होकर कायस्थों को आंखें तरेरने लगीं. इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लिहाज से आज जितना पतन कायस्थ समुदाय का हुआ है, उतना किसी अन्य जाति का नहीं. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आने वाले कुछ दशकों में कायस्थ समुदाय की गिनती किसी विलुप्तप्राय जाति की तरह भी हो सकती है. कायस्थों की दिन पर दिन बदतर होती अवस्था का यदि हम विश्लेषण करें तो पाएंगे कि इसके पीछे कई तरह के कारकों ने जबरदस्त भूमिका निभाई है. ऐसे कारकों में हम सबसे पहले कायस्थीय गुण की विवेचना करते हैं. जैसा कि सबको विदित है, कायस्थ हमेशा से अपनी पढ़ाई लिखाई और अध्ययन मनन के लिए विख्यात रहे हैं. अपनी पढ़ाई लिखाई के दम पर छोटी या बड़ी नौकरियां पाना उनकी वरीयता सूची में शरीक रहा है. मंडल कमीशन के लागू होने से पहले कायस्थों की एक बड़ी तादाद केंद्र और राज्य की प्रशासनिक सेवाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होती थी. हालांकि कायस्थ आज भी इन सेवाओं में हैं ,पर जातीय रिजर्वेशन के चलते उनकी संख्या और वरीयता पहले की तुलना में अत्यंत कम हो गई है. किसी समय लेखपाल और पटवारी जैसे पदों पर सिर्फ कायस्थों की मोनोपली रहा करती थी, किंतु रिजर्वेशन के चलते अब ऐसे पदों से भी कायस्थों का लगभग सफाया हो चुका है. कुछ प्रबुद्ध किस्म के कायस्थ लेखक, पत्रकार ,साहित्यकार और अभिनेता भी होते थे, पर अन्य जातियों के जातीय संचेतना और भेदभाव के चलते यहां भी उनके अवसर गौण हो गए है. खेती किसानी, कारोबार इत्यादि कायस्थों के पसंदीदा विषय नहीं रहे हैं, इसलिए इनमें भी कायस्थों की संख्या बहुत कम है. कायस्थों के जातीय गुण की विशेषता का विश्लेषण करने का आशय सिर्फ यह बताना है कि अपने इस गुण के चलते कायस्थ किस तरह से समाज की मुख्य धारा से कट गए. पढ़ाई लिखाई और नौकरी के चलते कायस्थ हमेशा अपने घर समुदाय से दूर रहे, इसलिए उनमें जातीय संचेतना और जाति के लिए मोह कभी पैदा नहीं पाया. प्रभावशाली पदों पर काम करते करते उन्होंने उन्होंने अपना एक अभिजात्य वर्ग बना लिया, जिसमें जातीय लगाव के लिए कोई जगह ही नहीं बन पाई. ऐसे लोगों की निगाह में जातीय एकता के बजाय अपनी अलग पहचान और निजी प्रभुत्व अत्यंत महत्वपूर्ण रहा. प्रबुद्ध किस्म के कायस्थों ने जातीयता की भावना को अत्यंत हीन निगाह से देखा, इसलिए उन्होंने जातीय संचेतना विकसित करने के काम से खुद को दूर रखा. इसके ठीक उलट ब्राह्मण,ठाकुर, बनिया, यादव जैसी जातियां खेती किसानी, स्थानीय कारोबार या रोजगार के चलते अपने गांव,घर, कस्बे और जातीय जड़ों से जुड़ी रही, जिसके चलते उनमें जातीय लगाव और एकता की भावना मजबूती के साथ विकसित हुई. उन्होंने अपनी जातीय भावना के साथ बदलते वक्त की नब्ज को बहुत अच्छी तरह से पहचाना. परिणाम सामने है कि वे कहां हैं, और हम कहां हैं.
सच बात यह है कि कायस्थ अपने दुख से नहीं, दूसरे कायस्थ के सुख से दुखी है. उसका यह दुख इसलिए उसे परेशान करता है, क्योंकि उसमें जातीय भाई चारे और चित्रगुप्त वंशीय लगाव का अभाव है.
हमारे समुदाय में व्याप्त इस तरह की भावना ही हमारे सर्वनाश का कारण है, और यही कायस्थ समुदाय के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी है. इमारत चाहे जितनी भी ऊंची और भव्य बना दो, जब तक उसकी बुनियाद और आधार मजबूत न हो,वह टिकाऊ और दीर्धकालीन हो ही नही सकती. जो लोग चित्रगुप्त वंशीय आधार की परिकल्पना से अब तक खुद को दूर रखे हुए हैं, उन्हें भी इस सत्य से अनजान नहीं रहना चाहिए कि आधार से दूर रह कर कोई भी समृद्ध और सुखी बहुत दिन तक नहीं रह सकता. कायस्थ समुदाय का विकास उसके आधार से जुड़ा हुआ है. इस आधार के सहारे ही खोए गौरव को पाया जा सकता है. आज का युग एकता का युग है. विजेता वही बनेगा, जो एक है. बिखराव में बरबादी है. यह हम पर निर्भर करता है कि हम क्या चाहते हैं. जय चित्रांशी राकेश श्रीवास्तव

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