कायस्थ एकता संभव है या नहीं – संजीव सिन्हा
कायस्थ संगठनों और कायस्थ गण में आजकल सबसे ज्यादा चर्चा वाला विषय है, कायस्थ एकता संभव है या नहीं। कुछ इसके विपक्ष में तर्क देते हैं, तो कुछ इसके पक्ष में। इस संबंध में मैं पूर्व में लिख चुका हूॅ कि कायस्थ एकता अब तक क्यों संभव नहीं हुयी और अगर आज इसकी संभावना बन रही है तो क्यों बन रही है।
कायस्थ एकता अब तक क्यों संभव नहीं हुयी, पहले इस बिन्दु पर आते हैं। इस संबंध में दिये गये उदाहरण वास्तविक हैं पर उसमें नाम को उजागर नहीं किया जा रहा है कि अनावश्यक वाद-विवाद न हो क्योंकि ये पुराने प्रकरण हैं और इस पर वाद-विवाद से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। मैं सिर्फ स्थिति स्पष्ट करने के लिए उदाहरण लिख रहा हूॅ।
1. कई दशक पहले एक कायस्थ को उनके फुफेरे बहनोई ने अपने कार्यालय में लिपिक के पद पर नियुक्त करा दिया। उस समय कार्यालय में जूनियर इंजीनियर के पद खाली थे, मगर उन्होंने उक्त पदों पर आवेदित करने के संबंध में कोई दिशा निर्देश अपने साले को नहीं दिये क्योंकि उस समय वे खुद उस समय असिस्टेंट इंजीनियर थे और उन्हें यह डर लग रहा था कि यदि अपने साले को जूनियर इंजीनियर बनने में सहायता कर दी तो कल को ये मेरे बराबर खडा हो जायेगा। लिपिक के पद पर नियुक्त कायस्थ महोदय वरिष्ठ लिपिक के पद पर सेवानिवृत्त हो गये और उनके बहनोई विभागाध्यक्ष बन कर सेवानिवृत्त हुए।
2. इसी तरह से दो दशक पहले एक कायस्थ ने अपनी योग्यता से प्रदेश स्तरीय परीक्षा पास कर पुलिस विभाग में तृतीय श्रेणी की नौकरी प्राप्त की। कुछ ही दिन बाद एक अन्य प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम आया, जिसमें नियुक्ति अन्य जनपद में होनी थी, उक्त कायस्थ ने अपने साले साहब जो कि इंजीनियर के पद नियुक्त थे, से इस सबंध में सलाह मांगी, मगर इंजीनियर साहब ने यह कह कर कि यह आपके घर का मामला है, मैं कोई सलाह नहीं दे सकता, प्रकरण से अपना पल्ला झाड लिया और उक्त कायस्थ जो दूसरे विभाग में जाकर राजपत्रित अधिकारी बन सकता था, अपने निकट संबंधियों द्वारा सलाह न दिये जाने के कारण आज तक तृतीय श्रेणी का ही कर्मी है। इसी कायस्थ द्वारा पुलिस विभाग में आने से पूर्व अपने पिता के कार्यालय में नौकरी का आवेदन किया गया था, जिसमें लिखित व साक्षात्कार में प्रथम स्थान पर होने के बावजूद भी कायस्थ विभागाध्यक्ष द्वारा परीक्षा का परिणाम रोक लिया गया और उसके पुलिस विभाग में चयन होने के बाद ही परीक्षा परिणाम जारी किया गया।
अगर लिखने बैठूंगा तो ऐसे सैकडों उदाहरण मेरे आस-पास बिखरे पडे हैं परन्तु, मेरा उद्येश्य उदाहरण लिखना नहीं है बल्कि यह अवगत कराना है कि एक कायस्थ द्वारा दूसरे कायस्थ को उन्नति की ओर अग्रसर होते हुए न देखना कायस्थ समाज का सबसे बडा दोष रहा है। इसी कारण कई बार उन्नति के पथ पर जाता हुआ कायस्थ अपने समाज से विमुख भी हो जाता है।
परन्तु, अब स्थितियां बदल रही है, कायस्थों द्वारा कायस्थों की मदद की जा रही है। इस संबंध में भी 2 उदाहरण देना चाहूंगा और इसमें मैं नाम भी उजागर करूंगा क्योंकि यह सकारात्मक दृष्टिकोण है और हम सभी को इस पर अमल करना चाहिए।
1. कुछ दिन पूर्व भोपाल के कर्मठ कायस्थ युवा नेता श्री करण सक्सेना जी ने एक कायस्थ वंशज की पढाई में बाधा आने की बात लिखते हुए समाज से सहायता की बात विषयक पोस्ट डाली थी और कायस्थ एकता के पक्षधर इलाहाबाद के श्री धीरेन्द्र श्रीवास्तव जी तथा संभवत महाराष्ट के एक कायस्थ बंधु जिनका नाम मुझे स्मरण नहीं आ रहा है, के द्वारा कायस्थ वंशज की पढाई हेतु आवश्यक धनराशि संबंधित खाते में डाल दी गयी थी और उसकी पढाई सुचारू रूप से जारी है।
2. इसी प्रकार भारतीय डिसएबल क्रिकेट टीम में चयनित श्री मुकेश कंचन जो झारखंण्ड निवासी है, स्पान्सर न मिलने के कारण टीम के दौरे पर जाने में असमर्थ थे। इस संबंध में जानकारी मिलने पर नई दिल्ली में कायस्थ फ्रेडशिप क्लब के संचालक श्री मंगल प्रदीप जी द्वारा अथक प्रयास कर श्री मुकेश कंचन जी को स्पान्शरशिप दिलवायी गयी और वे भारतीय टीम के साथ दौरे पर जा सके।
इसी तरह के कुछ और उदाहरण सामने आये है, मगर सबका उल्लेख करना मेरा उद्येश्य नहीं है। मेरा उद्येश्य है कि भारत का समस्त कायस्थ समाज चाहे वो किसी भी संगठन से जुडा हो, अपने श्रेष्ठता और ज्ञान आदि के अहंकार को सदैव के लिए छोड कर कायस्थ एकता के लिए संकल्पबद्ध हो। आपसी मनमुटाव या पिछली बातों का जिक्र करके अनावश्यक वादविवाद, आदि हमें कभी भी आगे की ओर नहीं ले जायेंगे। ऐसी बातें हमे सदैव पीछे की ओर ले जायेंगी और हमारा आगे बढने का सपना सिर्फ सपना ही रह जायेगा। कायस्थ सिर्फ कायस्थ है, उपजातियों का बंधन और उपजातियों की श्रेष्ठता की भावना समाप्त कर एकता के लिए संकल्पबद्ध होना ही हमारे लिए एकमात्र मार्ग है।
जय चित्रांश। जय कायस्थ। जय श्री चित्रगुप्त जी महाराज।
आपका साथी
संजीव सिन्हा