वर्ष 2015 के अवसान पर आज हम बैठे हैं कायस्थ वर्ष का लेखा-जोखा लेकर. क्या खोया-क्या पाया? 2015 को हम अपने समाज के लिय कायस्थ वर्ष कहें तो ज्यादा उपयुक्त होगा. इस वर्ष में कायस्थों ने सोशल मीडिया का जम कर दोहन किया. फेसबुक, व्हाट्स एप्प जैसे साधनों का प्रयोग अपने मन की बात कहने-सुनने में अत्यधिक प्रचलित हुआ. परिणाम स्वरूप सामाजिक वार्तालाप एवं एक दुसरे से जुड़ाव में आशातीत एवं आश्चर्यजनक वृद्धि हुई
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कायस्थ वर्ग को सुशिक्षित वर्ग माना जाता रहा है. और ऐसा इसलिय है कि मुग़ल काल से ही कायस्थ शासन का अंग रहे हैं. अंग्रेजों के समय में भी कायस्थों ने अपनी योग्यता का लोहा मनवाया. पर अगर हम यह कहें कि हम ही सबसे योग्य रहे तो यह अतिशयोक्ति होगी, हमारा दंभ होगा. हमारे पास गर्व करने के कुछ कारण तो हैं पर इतना नहीं, जितना हम इतराते हैं. 1883 में श्रद्धेय काली प्रसाद कुल्भाष्कार जी ने कायस्थों में शिक्षा की कमी को देखते हुए कायस्थ पाठशाला की स्थापना की थी एवं कायस्थों के बिखराव को देखते हुए वर्ष 1887 में नेशनल कायस्थ कांफ्रेंस की स्थापना की थी.


इस कायस्थ वर्ष में इस सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटना यह हुई की श्री कैलाश नारायण सारंग के नेतृत्व में चल रही अखिल भारतीय कायस्थ महासभा के विवाद पर SDM कोर्ट में चल रहे मुकदमे का फैसला आया जिसमे कहा गया कि श्री कैलाश नारायण सारंग अखिल भारतीय कायस्थ महासभा के कभी भी विधिक रूप से अध्यक्ष नहीं रहे. तथा विधिक उत्तराधिकारी डॉ. आशीष पारिया के पक्ष को सौंपा गया. यह फैसला देश के एकमात्र राष्ट्रीय सामाजिक संस्था के अध्यक्ष, जो पिछले 15 वर्षों से चले आ रहे थे, के लिए अत्यंत दुखदायी कहा जा सकता है. स्वभावतः इस फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती दी जानी चाहिए थी. पर ऐसा नहीं हुआ. इसका विधिक अर्थ यह हुआ कि श्री सारंग जी ने फैसले को स्वीकार कर लिया. लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं हुआ. आज भी गैर वैधानिक तरीके से श्री कैलाश नारायण सारंग एवं उनके गुट द्वारा उसी बैनर एवं निबंधन सख्या को अपना बताकर समानांतर संगठन चलाई जा रही है. जो न समाज हित में है और न ही देश हित में. इससे कायस्थों की प्रतिष्ठा धूमिल हो रही है. यह घटना यह सोचने पर विवश करती है कि सामाजिक सेवा का दंभ भरनेवाले लोग को नैतिक-अनैतिक, वैधानिक-अवैधानिक तरीके से क्या जीवन पर्यंत अध्यक्ष बने रहना चाहिए? आखिर किस लोभ के वशीभूत हो ऐसा गैरकानूनी कार्य पूरी निर्लज्जता के साथ किया जा रहा है?


इस वर्ष कई कायस्थ सम्मलेन हुए. राजनितिक भागीदारी को लक्ष्य कर किये गए सम्मलेन में सामाजिक नेता काफी उपेक्षित रहे. यह जहाँ सामाजिक नेताओं की कमजोरी को दिखाता है, वहीँ राजनीति से ताल्लुक रखनेवाले लोगों की स्वेच्छाचारिता भी दर्शाती है. सम्मलेन में खासकर युवा वर्ग काफी उत्साहित रहा. समाज के युवाओं को हमारे राजनितिक मठाधीशों ने जो सब्जबाग़ दिखाए उससे प्रेरित युवाओं का, वर्ष का अंत आते-आते मोह भंग होता हुआ दिखा. युवा अपनी समस्याओं के निदान के लिए और संगठन की सच्चाई समझने की लालसा से अब खुद संगठन से जुड़ने लगे हैं, जो शुभ संकेत कहा जा सकता है. आज के युवाओं में संगठन का अनुभव भले न हो लेकिन समर्पण, लगन, परिश्रम एवं शिक्षा से लबरेज युवा से समाज की उम्मीदे भी बढ़ी है. आवश्यकता है उन्हें सही मार्गदर्शन देने की.


इस वर्ष की समस्या जो वर्ष 2016 में कैरीओवर होने वाली है, उसमे रोजगार एवं शादी-व्याह प्रमुख है.सामाजिक संगठनो ने कोई योजना इस समस्या के निराकरण के लिए नहीं बनायी है. राजनितिक व्यक्तियों में एक जिन होता है हरेक अवसरों को भुनाने की. इस वर्ष में यह देखने को मिला है.
इस वर्ष में कायस्थ समाज के लिए कुछ बड़ी-बड़ी दुखद घटनाएं हुई. समाज ने संत स्वरूप लाल जैसे संत समान सामाजिक नेता खो दिया तो हमारे समाज की कई बेटियां नृशंसता की शिकार हुई. वही सिवान के समाजसेवी डॉ ओंकार श्रीवास्तव की हत्या ने समाज को व्यथित किया है.राजनितिक घटनाओं में प्रमुख विधान सभा के चुनाव में कायस्थों का प्रतिनिधित्व घट जाना हमें उद्वेलित कर गया. 2015 में हमने राजनितिक उपलब्धियां हासिल नहीं की, इसका खेद रहेगा. डॉ. राजेंद्र प्रसाद एवं लाल बहादुर शास्त्री जैसे विश्व प्रसिद्ध कर्मयोगी की सरकारी उपेक्षा से भी हम बहुत आहत हुए हैं. उत्तर प्रदेश में कायस्थ द्वारा स्थापित दो राजनितिक दल राष्ट्रव्यापी जनता पार्टी एवं कार्यस्थ सेना की स्थापना में एक धुंधला प्रकाश की किरण दिखाई पड़ी है, जो उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव में कुछ आश जगा सकती है.सामाजिक दृष्टि से सोंचे तो इस वर्ष भी कई कायस्थ संगठन वजूद में आये हैं जो सामाजिक ताने-बाने के लिए शुभ संकेत नहीं हैं. संगठन का उदय मत भिन्नता का परिणाम ही होता है. इस लिहाज से हम असफल रहे हैं. आज की जरुरत है कि वर्तमान संगठन में कॉमन बातों पर सहमती बनाकर एक दिशा में हम काम करने की सोंचे तो शायद जल्द ही हम अपनी समस्याओं को सुलझा सकेंगे. अगर आप अच्छा संगठन चाहते हैं तो निर्भीक बनिए. संगठन से जुड़िये. काम करिए. हमने बार-बार कहा है और कहता रहूँगा कि संगठनो से सवाल पूछे जाते रहने चाहिए एवं स्वस्थ आलोचना करने से डरें नहीं. यह समाज आपका भी उतना ही है जितना दूसरों का.उपरोक्त विश्लेषण में हो सकता है कि कई विन्दु छुट गए हों लेकिन मोटे तौर पर हमे अधिक सतर्क, कार्यशील एवं सामाजिक सुधार एवं विकास के लिए हठी होने की जरुरत है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता.सभी बंधुओं को मेरा 2015 नमस्कार. अलविदा 2015 एवं स्वागत 2016
- महथा ब्रज भूषण सिन्हा, रांची.
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