मेरी माँ पक्की कायस्थ थीं – आलोक श्रीवास्तव
मेरी माँ पक्की कायस्थ थीं. भोपाल की गंगा-जमनी तहज़ीब में पली-बढी. उर्दू अदब, भाषा और लिपि से पूरी तरह वाक़िफ़. बहुत क़ाबिल. मेरा कवि होना उन्हीं का सपना था. इस अधपके कवि-मन को हौसला देना वो किसी फ़र्ज़ की तरह निभातीं. बाबूजी ठेठ कायस्थ थे. नौकरी-चाकरी वाले लाला. अक्सर नाराज़ हुआ करते. कहते- "पढ़-लिख जाओ, चार पैसे कमाओ, तब शायरी-वायरी करना. ठीक रहेगा." मैं बाबूजी से बहुत डरता था. कोई प्रतिवाद नहीं करता. (एक बार किया, तो पानी भरने वाले प्लास्टिक के पाइप से पिटाई हुई. आजतक याद है.) इसीलिए जब भी वे नाराज़ होते, मैं माँ के पास जाता, गहरी साँस भरता, और कहता- "तुम देखना, मैं ग़ज़लें कहूँगा और एक दिन मेरी ग़ज़लें. जगजीत सिंह और पंकज उधास सर भी गाएंगे. माँ तपाक से कहतीं- आमीन. यहीं से पहली किताब के नाम की बुनियाद रखाई. ये 90 का शुरुआती दशक था और मैं महज़ 17-18 बरस का.
28 अक्टूबर 1995 को बाबूजी नहीं रहे और 31 मार्च 1997 को माँ. लोग इश्क़ में शायर बनते हैं. मुझे माँ के सपने ने शायर बनाया. मैं अक्सर कहता हूँ. मेरे कवि-मन में मेरी माँ रहती हैं. वही रचती हैं.
'अब क्या होगा ? कैसे होगा ? माँ के बाद इस मन को कौन तराशेगा ? कौन हौसला देगा ?' तभी एक आवाज़ कानों से दिल में उतरी- "क्या नया हो रहा है गुड्डू उस्ताद ?" ये बड़े भाई की आवाज़ थी. अरुण भैया. चार भाइयों में तीसरे. पहले आनंद, गीत विधा के स्थापित हस्ताक्षर, पितातुल्य. दूसरे विपिन, घर-भर को साथ लेकर चलने वाले. और तीसरे ये- अरुण भाई. फिर दीदी और फिर मैं ! मैं घर में सबसे छोटा था. सो मैं गुड्डू.
माँ के बाद हर वक़्त मुझसे कुछ न कुछ नया करवाने की ललक भरने वाले अरुण भैया. हौसला देने वाले. हर समय, हर सफ़र, हर नाकामी और हर कामयाबी में साथ खड़े रहने वाले. किसी बात को समय पर शेयर न करो तो बच्चों की तरह रूठ जाने वाले. पहले से बता दो तो पूछ-पूछ कर, टोंच-टोंच कर जान हलकान कर देने वाले जुनूनी. कभी-कभी तो यूँ लगता कि माँ चली गईं, लेकिन मेरे लिए अपनी आत्मा का अंश इनमें उड़ेल गईं, कह गईं कि- 'अब तुम्हीं संभालो इसको.'
वो तमाम सपने जो माँ की आँखों से टपका करते थे, अरुण भैया की हथेलियों पर गिर कर मोती बन गए थे. वे मुट्ठी खोल-खोल कर उन्हीं मोतियों को दिखाया करते, और आगे बढ़ते रहने का जज़्बा ज़िंदा रखते. एक दिन, एक दिन नहीं, एक रात. आज ही की रात. 3 जुलाई 2014 की रात. हम सबके लिए एक काली रात. मोती दिखाते-दिखाते भैया की हथेली खुली की खुली रह गई. ठण्डी पड़ गई. मैं सोचता रहा कि काश, वापस कोई हरकत हो और ये हथेलियाँ मुट्ठियों में फिर बंद हो जाएँ. हौसले का, सपने का एक नया मोती दिखाने के लिए फिर खुलें. लेकिन... लेकिन ऐसा फिर कभी नहीं हुआ. वो हथेली जिसकी धमक दुआ बन कर पीठ पर ज़ोर से पड़ती थी. और शाब्बाश मेरे शेर कह कर बाहों में बदल जाती थीं. उस हथेली को रगड़-रगड़ कर मैं गर्म करता रहा. लेकिन वो गर्मी फिर वापस नहीं लौटी. मैं आज की ही रात उन्हें नींद से फिर कभी नहीं उठा पाया.
आज अरुण भैया को गए पूरा एक साल हो रहा है. दो दिन बाद उनका एक और सपना, साकार हो रहा है. 17-18 साल के जिस लड़के ने अपनी माँ से जो वादा किया था, वो दुआ बन कर साकारा हो रहा है. लेकिन अब न माँ हैं. न अरुण भैया. जो साथ है तो बस साकार होते वो सपने जो उन आँखों ने देखे थे. वो आँखें आसमानों से सितारा बन कर झाँक रही हैं. मेरी कामयाबी पर ख़ुशी से डबडबा रही हैं. और यह कवि-मन है कि कह रहा है- 'ये मेरे नहीं- तुम्हारे ही 'ख़्वाबों की कहानी' है. तुम्हीं को समर्पित है. तुम्हारे ही चरणों में मेरी श्रद्धांजलि है.'