राजधानी पटना की कुम्हरार विधानसभा सीट, जो लंबे समय से भाजपा का गढ़ और कायस्थ समाज का अभेद्य किला मानी जाती रही है, इस बार एक ऐसे सियासी तूफान के केंद्र में है, जिसके झटके अगले विधानसभा चुनाव (2025) में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के लिए भारी पड़ सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा कायस्थ समाज के कद्दावर नेताओं को दरकिनार करते हुए, एक वैश्य नेता संजय गुप्ता को प्रत्याशी घोषित करने के फैसले ने न केवल कायस्थ समाज में गहरा आक्रोश और निराशा का ज्वार उठा दिया है, बल्कि इसने पार्टी के भीतर की गुटबाजी और शीर्ष नेताओं की रहस्यमय चुप्पी पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
सूत्र बताते हैं कि इस फैसले के पीछे की कहानी बेहद चौंकाने वाली है, जिसमें पटना साहिब के सांसद और कायस्थ समाज के एक प्रमुख चेहरे रविशंकर प्रसाद की 'खामोशी' ने चिंगारी का काम किया है। कुम्हरार के चित्रांश बंधुओं ने स्पष्ट संदेश दे दिया है कि भाजपा द्वारा उन्हें 'बंधुआ मजदूर' समझने की भूल इस बार महंगी पड़ेगी, और वे एकजुट होकर जन सुराज के प्रत्याशी, जाने-माने शिक्षाविद और महान गणितज्ञ डॉ. के.सी. सिन्हा के साथ खड़े होने का मन बना चुके हैं।
कुम्हरार: जहां कायस्थ समाज की उपेक्षा का 'रहस्य' गहराया
कुम्हरार विधानसभा सीट पर कायस्थ समाज का दशकों से दबदबा रहा है। यह सीट उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सम्मान का प्रतीक रही है। ऐसे में इस बार किसी भी कायस्थ नेता को टिकट न मिलना अपने आप में एक 'अनहोनी घटना' है, जिसने कई रहस्यों से पर्दा उठाया है।
जानकारी के अनुसार, जब भाजपा की चुनाव समिति में कुम्हरार सीट पर मंथन चल रहा था, तब कायस्थ समाज के कई प्रभावशाली नामों, जिनमें ऋतुराज सिन्हा, संजय मयूख, रणबीर नंदन, मनीष सिन्हा और अभिषेक प्रियदर्शी जैसे नेता शामिल थे, पर गंभीरता से चर्चा हुई। इन सभी नेताओं का समाज में एक मजबूत आधार और पार्टी के लिए लंबा योगदान रहा है। लेकिन, सबसे अचंभित करने वाली बात यह रही कि बैठक में मौजूद कायस्थ समाज के ही प्रतिनिधि, जिनमें सांसद रविशंकर प्रसाद और सांसद दीपक प्रकाश जैसे कद्दावर चेहरे शामिल थे, इन नामों पर आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साधे रहे। उनकी ओर से अपने समाज के उम्मीदवारों के लिए कोई पुरजोर वकालत नहीं की गई, जैसा कि आम तौर पर ऐसे महत्वपूर्ण बैठकों में होता है।
इसके विपरीत, अन्य जातीय समुदायों के नेताओं ने अपने-अपने पसंदीदा उम्मीदवारों के लिए खुलकर पैरवी की और उनके पक्ष में मजबूत तर्क रखे। इसी चुप्पी और निष्क्रियता का फायदा उठाकर, संगठन मंत्री भीखूभाई दालसानिया और प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल ने मिलकर कुम्हरार से एक कायस्थ प्रत्याशी के बजाय वैश्य समाज के अपेक्षाकृत जूनियर नेता संजय गुप्ता के नाम पर मुहर लगवा दी। रविशंकर प्रसाद की ओर से इस निर्णय पर कोई प्रतिक्रिया न आना, उनके मंतव्य पर सवाल खड़े करता है। पटना साहिब के सांसद होने के नाते, उनकी राय को पार्टी में प्राथमिकता मिलती, लेकिन उनकी चुप्पी ने इस पूरे प्रकरण को एक नया मोड़ दे दिया है।
रविशंकर प्रसाद: समाज के सवालों के घेरे में
कायस्थ समाज में रविशंकर प्रसाद की यह चुप्पी अब राजनीतिक गलियारों में गरमागरम बहस का विषय बन गई है। समाज के लोग मुखर होकर सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर उनके रहते कुम्हरार की प्रतिष्ठित सीट उनके समाज के हाथ से कैसे निकल गई? इस फैसले से समाज में इतनी अधिक नाराजगी है कि आगामी चित्रगुप्त पूजा के अवसर पर रविशंकर प्रसाद जब पटना के पंडालों में जाएंगे, तो उन्हें कायस्थ समाज के तीखे सवालों का सामना करना पड़ सकता है। समाज के लोग सीधे तौर पर उनसे पूछेंगे कि क्या यह चुप्पी रणनीतिक थी, या फिर पार्टी के भीतर की गुटबाजी और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का परिणाम?
यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि चित्रांश समाज भाजपा का पारंपरिक वोटर रहा है। उन्होंने दशकों तक भाजपा को बिना शर्त समर्थन दिया है, इस उम्मीद में कि उनकी आवाज सुनी जाएगी और उनके प्रतिनिधित्व को सम्मान मिलेगा। लेकिन, इस बार भाजपा ने उन्हें 'बंधुआ मजदूर' समझ लिया है, यह मानकर कि "सीट दो या ना दो, वोट भाजपा को देगा ही।" इस सोच ने समाज को गहरा आघात पहुंचाया है और उन्हें अपने राजनीतिक विकल्पों पर पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया है।
डॉ. के.सी. सिन्हा: कायस्थ स्वाभिमान के नए प्रतीक
कुम्हरार की सियासी रणभूमि में डॉ. के.सी. सिन्हा का उदय कायस्थ समाज के लिए एक नए स्वाभिमान और सशक्त प्रतिनिधित्व का प्रतीक बनकर उभरा है। पटना साइंस कॉलेज के पूर्व प्राचार्य और एक महान गणितज्ञ के रूप में उनकी पहचान किसी परिचय की मोहताज नहीं है। वे जन सुराज के प्रत्याशी के रूप में चुनावी मैदान में हैं, लेकिन उनकी सबसे बड़ी पूंजी उनका चित्रांश समाज से जुड़ाव और उनकी बेदाग छवि है।
कायस्थ समाज एकजुटता के साथ डॉ. के.सी. सिन्हा के पीछे खड़ा है। समाज का मानना है कि वे किसी राजनीतिक घराने से नहीं आते हैं, अतः उनका प्राथमिक उद्देश्य समाज और कुम्हरार क्षेत्र के लिए कार्य करना होगा। शिक्षा के क्षेत्र में उनके विशाल अनुभव को देखते हुए, वे विधानसभा में जाकर शिक्षा की दशा और दिशा सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। उनके विधानसभा पहुंचने से चित्रांश समाज को गौरव महसूस होगा और उन्हें लगेगा कि उनकी आवाज अब सदन में गूंजेगी।
एनडीए की हार तय? कुम्हरार का निर्णायक जनादेश
कुम्हरार में कायस्थ समाज की संख्या इतनी अधिक है कि उनका एकजुट वोट किसी भी दल का समीकरण बिगाड़ सकता है। यदि इस बार कायस्थ समाज NDA के खिलाफ बटन दबाता है, तो भाजपा के लिए कुम्हरार सीट पर शिकस्त तय है। यह केवल एक सीट का मामला नहीं है, बल्कि यह भाजपा के लिए एक चेतावनी है कि वह अपने समर्पित वोट बैंक को हल्के में न ले।
समाज का यह विरोध केवल संजय गुप्ता की उम्मीदवारी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के उस रवैये के खिलाफ है, जिसमें कायस्थ समाज के योगदान और निष्ठा को अनदेखा किया गया है। यह फैसला बताता है कि पार्टी ने पारंपरिक निष्ठाओं को स्वयंभू मान लिया है, जिससे अब उसे गंभीर चुनौती मिल रही है।
सियासी समीकरणों में बदलाव की आहट, डॉ. के.सी. सिन्हा को मिल सकती है जीत
कुम्हरार विधानसभा सीट पर यह घटना मात्र एक स्थानीय चुनाव विवाद नहीं है, बल्कि यह बिहार की राजनीति में आते बड़े बदलावों का संकेत है। यह दिखाता है कि मतदाता अब जातिगत समीकरणों और पारंपरिक निष्ठाओं से परे जाकर, अपने स्वाभिमान और प्रतिनिधित्व के लिए खड़े होने को तैयार हैं। भाजपा के लिए, यह एक महंगा सबक हो सकता है, जो उसे अपने सबसे वफादार समर्थकों की उपेक्षा की कीमत चुकाने पर मजबूर कर सकता है।
आने वाले समय में, यह देखना दिलचस्प होगा कि रविशंकर प्रसाद और भाजपा नेतृत्व इस नाराजगी को कैसे संभालते हैं। क्या वे कायस्थ समाज को वापस अपनी ओर खींच पाएंगे, या फिर कुम्हरार की यह चिंगारी पूरे बिहार में एक बड़े सियासी विद्रोह का रूप लेगी? एक बात तो तय है – कुम्हरार का रण इस बार केवल चुनावी जीत-हार का नहीं, बल्कि स्वाभिमान, प्रतिनिधित्व और राजनीतिक सम्मान की लड़ाई का मैदान बन चुका है। और इस लड़ाई में, डॉ. के.सी. सिन्हा के रूप में कायस्थ समाज को एक मजबूत और विश्वसनीय नेतृत्व मिल गया है, जो भाजपा के लिए चिंता का सबब बन चुका है।
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