न्यायमूर्ति बी के नारायण की मौजूदगी में पूर्व महापौर अध्यक्ष कायस्थ पाठशाला एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा चौधरी जितेंद्र नाथ सिंह तथा संयोजक 150 वर्ष चौधरी राघवेंद्र सिंह के नेतृत्व में सुनील दत्त कौटिल्य एवं डॉक्टर आनंद श्रीवास्तव के संचालन में उद्घाटित हुआ
कायस्थ पाठशाला का स्थापना दिवस एवं स्वनाम धन्य मुंशी काली प्रसाद कुलभास्कर तथा पूर्व राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जी का जन्मोत्सव गवाह बनी बिरादरी के हजारों लोगों की मौजूदगी आतिशबाजी एवं प्रसाद भोग तथा बधाई के साथ उद्घाटन सत्र संपन्न हुआ
कौन है कुलभास्कर मुंशी काली प्रसाद
अपने लिए तो सभी करते हैं। लेकिन कुछ ऐसे बिरले भी होते हैं जो समाज के उत्थान के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा देते हैं। मुंशी काली प्रसाद कुलभास्कर ऐसी ही शख्सियत थे। युवाओं को शिक्षित और स्वावलंबी बनाने के लिए उन्होंने कायस्थ पाठशाला की स्थापना की थी जो आज एशिया का सबसे बड़ा ट्रस्ट बन चुका है। इसे प्रयाग नगरी का गौरव ही कहेंगे कि मुंशी जी जैसी महान शख्सियत ने इसे अपनी कर्मस्थली के रूप में चुना। अलग बात है कि केपी ट्रस्ट भी जयंती और पुण्यतिथि पर ही उन्हें याद करता है।
श्री कालि प्रसाद कुलभास्कर का जन्म जौनपुर (उत्तर प्रदेश) के अलफस्टीन गंज मोहल्ला में 3 दिसम्बर 1840 को मुंशी दीन दयाल सिन्हा जी के घर हुआ था।
कालिप्रसाद जी ने लखनऊ के अवध चीफ कोर्ट में वकालत शुरू कर दी और कुछ ही समय बाद उनकी गणना प्रदेश तथा देश के प्रथम कोटि के अधिवक्ताओं में होने लगी। ताल्लुकेदार संघ ने उन्हे अपना कानूनी सलाहकार नियुक्त कर दिया अल्प अवधि में उन्होने लाखों की धनराशि अर्जित कर ली। पुरस्कार और पारिश्रमिक के रूप में उन्हें विपुल चल और उचल संपति प्राप्त हो गयी।
कालिप्रसाद जी को अपने उदारशायी कार्यो में अपनी धर्मपत्नी का सहज सहयोग प्राप्त था। कालिप्रसाद जी अपना सर्वस्व दान करना निश्चित कर चुके थे। इस सम्बन्ध में कानूनी लिखा पढ़ी भी प्रायः हो चुकी थी। मुंशी जी कुछ इसी प्रकार निश्चिन्त, आश्वस्त थे । सहसा उन्होने देखा, पास ही बैठी उनकी मौन तपस्विनी स्त्री की आंखो से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित हो रही है। मुंशी जी सकपका गये। सहमकर उन्होने पूछा ‘‘तुम्हारी आँखो से आंसुओ की यह झड़ी क्यों लगी है? मैने अपना सब कुछ दे दिया, इससे तो तुम दुखी नही हो रही हो?" "नही!‘‘ छोटा सा उत्तर मिला। "फिर? ‘‘कातर दृष्टि से अपनी परम सौभाग्यवती स्त्री की ओर देखकर उन्होने पूछा।
कुछ देर मौन रहने के बाद उनकी स्त्री ने करूणा विगलित स्वर में कहा, ‘‘आपने तो ऐसी व्यवस्था कर ली कि युगों-युगों तक आपको पिण्डा-पानी देने वाली संतति मिलती जाएगी। मगर मेरा चिराग तो बुझ गया। मुझे कौन पिण्डा पानी देगा?‘‘
‘‘क्यो ? वही संतति जो मुझे पिण्डा पानी देगी, तुम्हे नही देगी? ऐसा कैसे होगा?" मर्यादाशील मुंशी कालिप्रसाद के नेत्र सजल हो गये। उनकी पत्नी वहाँ से उठकर भीतर चली गयी।
थोड़ी देर बाद जब वह दीवानखाने में लौटकर आयीं तो उनके पाँव की उँगलियों पर चाँदी की बिछिया को छोडकर शरीर के किसी अंग पर कोई आभूषण न था। गहनों की गठरी आगे बढ़ाते हुये उन्होने बस इतना कहा, ‘‘लो, अपने दान में इस गठरी को भी जोड़ लो । मेरे पास अपने सुहाग-चिन्ह चाँदी की बिछियों को छोड़कर अब कुछ नही है। मेरे बच्चे फलें-फूलें।‘‘
कृतज्ञ समाज मे मुंशी कालिप्रसाद जी को कुलभास्कर कहकर उनको तथा स्वयं अपने को सम्मानित किया। मुन्शी कालीप्रसाद जी ने अपनी सारी संपत्ति का उपयोग जातिसेवा और समाजसेवा में किया। उन्होंने कायस्थ धर्म सभा और धर्मसभा की स्थापना की।
श्री कालिप्रसाद जी के जीवन का महानतम काम था इलाहाबाद में कायस्थ पाठशाला की स्थापना। इस पाठशाला की स्थापना करके मुंशी जी ने इसमें स्वयं सामान्य अध्यापक की तरह बच्चो को पढाने का काम भी किया। पाठशाला को वह कितना प्यार करते थे और उसे कितना महत्व देते थे, यह उनके इस अध्यापन कार्य से ही प्रमाणित है। आरम्भ में इस पाठशाला में कुल सात छात्र थे और नियमित अध्यापक थे मुन्शी शिवनारायण जी। परन्तु देखते देखते यह पाठशाला उन्नति करके इन्ट्रेन्स तक की शिक्षा देने लगी जिसके लिये सन् 1888 ई0 में उसे कलकत्ता विश्वविद्यालय से मान्यता भी प्राप्त हो गयी।
श्री कालिप्रसाद जी के वसीयतनामें का पंजीकरण 18 अक्टूबर 1886 ई0 को अदालत में हो गया। इस वसीयत नामें में उन्होंने अपने चल-अचल सम्पत्ति, कोठियाँ, जमीन जायदाद, दैनिक प्रयोग में आने वाली वस्तुओं तक का दान ट्रस्ट को कर दिया। इसके कुछ ही दिनों बाद, प्रायः तीन सप्ताह बाद 9 नवम्बर सन् 1886 ई. को दिल्ली में उनका देहान्त हो गया। उस समय उनके शव की ढँकने के लिए कफन का भी पैसा न था। इसका प्रबन्ध ट्रस्ट को ही करना पड़ा। ऐसे त्याग और सर्वस्वदान का कोई भी अन्य उदाहरण हमारी जानकारी में नही है।